योग क्या है ? What is yoga योग का संक्षिप्त विवरण । Summary of Yoga ।
योग का जन्म वेदो से पहले हुआ है और इसके जन्मदात्ता हिरण्यगर्भ जी महाराज है । जिनके बारे रिग्वेद और श्रीमद् भागवद् मे वर्णन मिलता है । वेदो के विकास के पहले ही योग विद्या विकसित हो चुकी थी । योग विद्या के गर्भ से ही वेदो का जन्म हुआ था ।
सृष्टी के आरम्भकाल मे हिरण्यगर्भजी महाराज से अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा नामक चार महात्माओ ने पढा फिर इनसे महर्षि पतंजलि ने प्राप्त कर ” योग दर्शन ” नामक योग ग्रंथ लिखा ।
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What is yoga योग का संक्षिप्त विवरण । Summary of Yoga
योग का अर्थ( Means of yoga )
योग शब्द के दो अर्थ है एक जोड़ना और दुसरा है उपाय । महर्षि पतंजलि के अनुसार चित की वृतियो को रोक देना ही योग है । माया के कारण जीवात्मा और परमात्मा भिन्न – भिन्न मालुम होते है । अद्वैत वेदांत के अनुसार जिस ज्ञान व क्रिया से जीवात्मा को परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है उसे ही योग कहते है । माया से बड़ा बंधन संसार मे और कोई नही है । इस माया से छुटकारा पाने का एक मात्र साधन ” योग ” है ।
योग शब्द का अर्थ आप ये ना समझे कि योग की शिक्षा केवल योगियो और संन्यासियो के लिए ही है , जो लोग यह समझते है की योग केवल संन्यासियो और योगी ही कर सकते है यह धारणा भ्रमपुर्ण है , राजा जनक व भगवान श्री कृष्ण इसके ज्वलंत उदाहरण है । वे ग्रहस्थ होते हुए भी पुर्ण योगी माने गये है ।
योग का महत्व ( Importance of yoga )
योगशिखोपनिषद् मे योग मार्ग का बहुत ही सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है ।
एक बार हिरण्यगर्भ ने भगवान शिवजी से संसारिक मोहमाया मे बंधे मनुष्य की मुक्ति का मार्ग पुछा , इस पर शिवजी ने योगमार्ग को ही मुक्ति मार्ग बताया ।
* योगेन रक्षते धर्मो विद्या योगेन रक्षते ( विदुरनीति)
अर्थात् योग से धर्म और विद्या दोनो की रक्षा होती है
शास्त्रो मे लिखा है – एक बार व्यासजी के पुत्र शुकदेव ने एक वृक्ष की शाखा मे छिपकर भगवान के मुँह से निकला हुआ योग उपदेश सुन लिया था और उसी से पक्षी योनि से उद्धार पाकर दुसरे जन्म मे परमयोगी हो गये थे ।
* ज्ञान निष्टो विरक्तो वा धर्मज्ञोपि जितेन्द्रिय : ।
विना योगेन देवोपि न मोक्षं लभते प्रिये ।।
शिवजी योग की श्रेष्ठता बताते हुए कहते है – योग विहीन ज्ञान मोक्षदायक नही हो सकता । ज्ञानवान , संसारविरक्त , धर्मज्ञ , जितेन्द्रीय होने से भी मुक्ति नही मिलती । मोक्ष के लिए देवताओ तक को भी योग साधना करनी पड़ती है ।
भगवान श्रीकृष्णा ने श्रीमद् भागवद् मे कहा की – योगी तपस्वी , ज्ञानियो व संकाय कर्म करने वाले से श्रेष्ठ है अतएव हे अर्जुन ! तु योगी हो ।
योग के प्रकार (Types of yoga)
योग मुख्यत: चार प्रकार के होते है ।
1.कर्मयोग
2.भक्तियोग
3.राजयोग
4. ज्ञानयोग
कर्मयोग से मल का नाश होता है , चित की शुुध्दि होती है और हाथो मे कुशलता आती है । भक्तियोग से विक्षेप दुर होता है । ज्ञानयोग से अज्ञान का आवरण हठकर बुध्दि का विकास होता है । आत्मज्ञान की उपलब्धि होती है । राजयोग द्वारा मन पर विजय पाकर प्रकृति के समस्त व्यापारो पर शासन किया जा सकता है व ब्रह्म , ईश्वर या विराट रूप के अद्वितीय दर्शन करके ध्यान की पराकाष्ठा तक पहुँचा जा सकता है ।
यह चारो योग परस्पर विरोधी न होकर एक – दुसरे के सहायक है । कुछ लोगों का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर विरोधी है परन्तु ऐसा कहना भुल है । इस सम्बन्ध मे भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि जो मुझमे निरन्तर मन लगाकर प्रेम से मेरा भजन करते है , उनको मे ज्ञान देता हूँ , जिसके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेते है ।
योग मे शक्ति (Power in yoga)
योगियों ने योगबल से मन स्थिर करके , शरीर के अंदर कहा क्या है ,यह सब जानकर , मानसिक अवस्थाओ का पुर्ण रूप से कर मंत्र , तंत्र और यंत्रो के रहस्य का अविष्कार किया है । उनके मतानुसार शरीर के हर चक्र मे , प्रत्येक स्नायविक केन्द्र मे एक – एक प्रकार की शक्ति निहित है । उन निंद्रित शक्तियों को प्राणवायु और ध्यान की सहायता से जाग्रत करके साधक दुरदर्शन , दुर श्रवण , परिचित विज्ञान , परकाया प्रवेश , आकाश रोहण , योगबल से देह त्याग नाना प्रकार की सिध्दियो प्राप्त कर सकते है ।